'' समाज कब समझेगा '' स्त्री '' के न खत्म होने वाले कार्यो का महत्व ''
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जैसा की हम सभी जानते हैं, एक स्त्री के जीवन में अनगिनत '' दैनिक -कार्य ''
होते हैं ,जिनकी न गिनती होती हैं ,न उनका महत्व होता हैं ।
फिर भी एक '' स्त्री '' वो कार्य खत्म करते -करते पूरा दिन बिता देती हैं, फिर उसे कहाँ जाता हैं , कि तुम दिन भर '' घर '' में ही तो रहती हो ,तो करती क्या हो?
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इस '' पितृसत्तात्मक '' समाज को आखिर कब उस औरत का '' दर्द ''और '' महत्त्व '' समझ आयेगा, की ''' महिलाओं '' के खत्म न होने वाले कार्यो '''
को करना इतना आसान नहीं है, जितना समझा जाता हैं। एक '' महिला '' ही होती है ,जो सब के
'' जगने '' से पहले '' जगती '' है और सब के '' सोने '' के बाद '' सोती '' है, फिर भी कहाँ जाता है तुम करती क्या हो?
प्रश्न यहां उठता है क़्या घर के '' कामो '' का कोई '' मूल्य '' नहीं है , निःस्वार्थ भावो से अपनों की सेवा करना , जिसके बदलें '' जीवनभर '' कुछ नहीं मांगना। हमेशा सब की सेवा करना ही '' अपना धर्म '' समझ कर निष्ठा पूर्वक सारे '' घरेलु कार्य '' करती है।
घर ,परिवार ,और समाज के लिए ,वो अपना ख्याल रखना भी भूल जाती हैं। कहीं कभी उसका भी मन करता हैं, की वो भी '' सारी जिम्मेदारियों '' से ''फ्री'' रहें। कभी तो रसोई से '' छुट्टी '' हो ,कपड़ों से छुट्टी हो ,बाकि कार्यो से भी छुट्टी हो ,बस '' मन ''' करे वहीं काम करें।
बिना किसी विचार के ''' घूमे -फिरे '' ,जिंदगी का अपने ''अंदाज'' में मजे ले ,न घर के कामों की चिंता हो ,नहीं ' 'कोई क्या'' कहेगा उसकी फिक्र।
पर वो ''' छुट्टी ''' और वो '' 'खुद ' '' के लिए समय उसे कभी नहीं मिलता।
इन सब बातों ने '' औरत '' को सिर्फ घर की चार '' दीवारी '' में '' कैद '' सा कर दिया हैं। उसके लिए ये ''घर '' ही अपनी सारी '' दुनियाँ '' हैं, और परिवार के सदस्य उसका सारा '' जहाँ ''
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कुछ '' सुकून और खुशी '' उसे हमारे '' धर्म के व्रत ,उपवास ,त्यौहार ,और उत्सवो '' से मिल जाती हैं।
हमारे समाज में त्यौहार , पर्व नहीं होते तो '' महिलाओं '' को हमेशा अपने घर की चार दीवारी में ही रहकर अपना सारा '' जीवन यापन '' करना होता और बाहार की दुनिया से न रिश्ते होते न कुछ सरोकार।
इसके आगे की बातें अगले अंक में .........
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