प्रेम तो है दिल की......... मोन की भाषा

  

            




प्रेम प्रकृति के हर जीव मात्र व सृष्टि के हर कण में समाया हुआ है। प्रेम तो मानवीय भावना की अनुभूतिमय परिभाषा है ।  भगवान की बनाई हुई हर एक आकृति में प्रेम है ,और उस से प्रेम किया जाता है। 

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हर चीज से प्रेम करना प्रेम के मानवीय स्वभाव को प्रकट करता है। इस प्रेम में बहुत  शक्ति है । हमे किसी के साथ भेदभाव, छल-कपट नहीं करना चाहिए ।  निश्छलता , सरलता से किया गया प्रेम ही सत्य सटीक है। 

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 वही प्रेम - प्रेम है,    जो अपना सर्वस्व अर्पण व समर्पण कर सकता है।  वही सच्चा प्रेम कर सकता है।अपने दिल में हमेशा प्रेम -भाव रखें। 



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प्रेम  सिर्फ तन से परिभाषित नहीं होता है।  प्रेम का असली भाव तो  समर्पण है। प्रेम किसी रीति -रिवाज ,परंपरा या बंधन  को नहीं मानता, वह तो सिर्फ मन के भाव देखता है। प्रेम किसी भी बंधन में बंधकर नहीं रहता है ,प्रेम तो निस्वार्थ भाव से और संपूर्ण समर्पण के साथ होता है। 

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प्रेम किसी सीमा को नहीं मानता ,जात पात ,धर्म ,जाति के बंधन से परे होता है।

 प्रेम वह है जो सुदामा ने , मीरा ने , सुरदास ने श्री कृष्ण से किया , शबरी ने राम से किया ,चन्द्रशेखर आजाद , भगत सिंह ने मातृभूमि से किया।



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   ''     मिटा कर वजूद अपना ,देना आकार प्रिये   [ जिससे प्यार हैं ] के सपनों को ,

                              भूलकर दर्द दिल का मुस्कराना उसकी खुशी मे , 

                             खो देना अपने आप को ,पाने को उसका समूचा संसार ,

                                  हां !  यही तो है प्रेम ....... । ''


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