HINDI SAHITYA KA BHAKTIKAL


                           भक्तिकाल [पूर्वमध्यकाल ]
परिचय :-          भक्तिकाल का समय हिंदी साहित्य में [शुक्ल जी ]के अनुसार १३७५ ई. से १७०० ई. तक माना जाता हैं ,१४ वी सदी के मध्य से १७ वी सदी तक। 
हिंदी साहित्य का भक्तिकाल मध्य [बीच ] का शुरुवाती भाग हैं। जो हिंदी साहित्य में वो विचारों की समृद्धि  कला ,वैभव के लिए प्रसिद्ध हुआ। 
भक्तिकाल में हिंदी काव्य में किसी एक दृष्टि से नहीं परन्तु अनेक प्रकार की दृष्टियों से उत्कृष्टता पाई गई हैं। 
इसी कारण विद्वानो  और साहित्यकारों ने भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहाँ हैं।                           


दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथा कथित निम्न जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे।

रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े गुरु थे । उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के व्यक्तियों को इन्होने अपना शिष्य बनाया था । 



जाति-पांति पूछे नहिं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।


रामानंद ने भगवान विष्णु के अवतार राम की उपासना पर जोर  दिया। रामानंद  और उनके  शिष्यो ने दक्षिण की भक्तिगंगा का उत्तर में प्रवाह किया। समस्त उत्तर-भारत इस पुण्य-प्रवाह की नदी में बहने लगा। भारत भर में उस समय पहुंचे हुए संत और महात्माओ सम्मान हुआ।





स्वर्णयुग :- समय की शीला पर साहित्य के चित्र व लेख बनते रहते हे ,परन्तु सभी चित्र व लेख स्वर्णिम नहीं होते। 
चित्र व लेखो को स्वर्णिम बनाने का पूरा दायित्व उस युग के कवि ,चित्रकार ,साहित्यकारों का होता हैं। 
परिस्थितियाँ केवल पृष्ठभूमि हैं। 
जब किसी देश ,जाति ,समाज की अक्षत और स्थायी सम्पति बन जाता हैं ,तो स्वर्णिम युग कहलाता हैं। 

,

स्वर्णकाल :-   भक्ति काल ही स्वर्ण युग हैं। हिन्दीसाहित्य के चारों कालों में भक्तिकाल को  अपने सामाजिक ,नैतिक, साहित्यिक मान्यताओं के कारण इस काल को स्वर्णयुग कहाँ जाने लगा। 
१.आदिकाल में  तो अपने आश्रयदाताओं का गुणगान हैं। 
२. वीरगाथाकाल युद्ध के भयानक ,तलवारों की झनझनाहट व तीरों के सनसनाहट का युग हैं। 
३. आधुनिक काल का साहित्य अपनी व्यापकता और विविधता की दृष्टि विचारणीय है। 

...

जन्म  :-
हिंदी साहित्य  में भक्ति साहित्य  अथवा काल का आरम्भ महाराष्ट्र के संत नामदेव की रचना से मन जाता है। 

कारण :-
अलग अलग विद्वानों ने भक्ति आंदोलन के कारणों  को अपने अपने तरीको से लिखा है। 
1. आचार्य रामचन्द्रशुक्ल :हिंदु लोगो ने भक्ति भाव के माध्यम से अपनी आध्यात्मिकता को दिखाकर पराजित मनोवृति का पतन किया। 
सातवीं सदी मे आलवर भक्तो ने जो भक्ति भावना का प्रारम्भ किया उसे उतर भारत में प्रसार के लिए सही परिस्थितिया मिली। 
2.आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी  :इस्लाम के बलात प्रचार के परिणाम स्वरुप उत्पन हुआ । इनका तर्क यह भी था ,की हिन्दू हमेशा ही आशावादी होते है। भक्ति काल के कवियों की कविता व रचना दोनों में निराशा का पुट नहीं है। 
3. सर जॉन ग्रियसन :-इन्होने भक्ति काल का उदय  ईसाई धर्म को माना।

भक्ति काल को पूर्व मध्य काल क्यों कहा :-
आदिकाल के बाद के युग को पूर्व मध्य काल का युग भी कहते है , जिसकी समयावधि सम्वत 1343 ईस्वी से 1643 ईस्वी। 


हिंदी साहित्य में भक्ति काल के दो प्रकार थे :-
लौकिक साहित्य और धार्मिक साहित्य। इस युग को श्रेष्ट युग कहते थे। 
नाम :-
जॉर्ज ग्रियसन ने "स्वर्णकाल" 
श्यामसुंदर दास ने "स्वर्णयुग "
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने "भक्तिकाल"
आचार्य हजारीप्रसद द्विवेदी  ने "लोकजागरण काल " कहाँ । 
हिंदी साहित्य में श्रेष्ट कवि और उत्तम रचनाएँ इसी काल में प्राप्त हुई। 





संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं :
  • सगुण भक्ति 
रामाश्रयी शाखा  
  • कृष्णाश्रयी शाखा
  • निर्गुण भक्ति
  • ज्ञानाश्रयी शाखा
  • प्रेमाश्रयी शाखा

    • कृष्णाश्रयी शाखा

    .        श्रीकृष्ण-साहित्य का मुख्य विषय कृष्ण की लीलाओं का गान  है।  इस शाखा में वात्सल्य एवं माधुर्य का भाव  है। वात्सल्य भाव के अंतर्गत कृष्ण की बाल-लीलाओं, चेष्टाओं तथा माँ यशोदा के ह्रृदय की झाँकी मिलती है। माधुर्य भाव के अंतर्गत गोपीयों की लीला मुख्य है। सूरदास के बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है- वात्सल्य के क्षेत्र में जितना अधिक  सूर ने अपनी बंद आँखों से किया, इतना किसी ओर कवि ने नहीं किया ।  इस धारा के कवियों ने भगवान कृष्ण की उपासना माधुर्य भाव  की है। इसीलिए इसमें मर्यादा का चित्रण नहीं मिलता।श्रीकृष्ण काव्य में मुक्त रचनाएँ ही अधिक पाई गई  हैं।  इस काव्य में गीति- की मनोहारिणी छटा हैं । 





     रामाश्रयी शाखा

    • रामाश्रयी शाखा के अंतर्गत भगवान राम  का गुण - गान  हैं। रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि तुलसीदास ने मर्यादा-पुरुषोत्तम राम का ध्यान किया । इसलिए उन्होंने रामचंद्र को आराध्य माना और 'रामचरित मानस' द्वारा राम-कथा को घर-घर में पहुंचाया । तुलसीदास हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं।  तुलसीदास में लोकनायक के सब गुण मौजूद थे। इनकी  पावन और मधुर वाणी ने जनता के तमाम स्तरों को राममय कर दिया। उस समय की प्रचलित तमाम भाषाओं और छंदों में इन्होने  रामकथा लिखी।  

    • ज्ञानाश्रयी शाखा

    इस शाखा के सभी कवि निर्गुणवादी हैं । वे गुरु को बहुत सम्मान देते हैं । जाति-पाँति के भेदों को अस्वीकार करते हैं । वैयक्तिक साधना पर  बल देते हैं। मिथ्या आडंबरों और रूढियों का वे विरोध करते हैं  


     ।

    • प्रेमाश्रयी शाखा

     सूफी कवियों की काव्य-धारा को प्रेममार्गी मार्ग माना गया है ,क्योंकि प्रेम से ईश्वर प्राप्त होता  हैं ऐसी सूफी कवियों की सोच  हैं । ईश्वर की तरह प्रेम भी सर्वव्यापी हैं, और ईश्वर का जीव के साथ प्रेम का संबंध  है, यह उनकी रचनाओं का मूल तत्व है। सूफी कवियों ने कई प्रेमगाथाएं लिखी हैं। इन गाथाओं की भाषा अवधी है ,और इनमें दोहा चौपाई  छंदों का प्रयोग हुआ है। 







    एक टिप्पणी भेजें

    0 टिप्पणियाँ